शनिवार, 8 जुलाई 2017

बुलाती तुम्हें मनाली

दिल्ली से मनाली के लिए निकली 7:45 रात्रि की वाल्वो बस बाहिरी इलाके में आकर रुक गई. पता चला, दो यात्री छूट गए - वे टेक्सी से रहे हैं. बस-यात्रीजिनमें हम लोग भी रहे, इस तरह रोके जाने पर आपत्ति उठा रहे थे. परिचालक होशियार था, उसने विडिओ फिल्म दंगललगा दी. धीरे-धीरे सभी शांत हो गए. लगभग आधे घंटे बिलम्ब से आयीं सवारियों को लेकर बस चल दी. दंगल देखते-देखते अम्बाला गया. रूककर खाना खाया. जब बस आगे बढ़ी,तो लगा एक दिवा-स्वप्न पूरा होने जा रहा है. हम सचमुच मनाली जा रहे हैं-किन्नरियों के देश. अटल जी ने जाने किस मूढ़ में लिखा होगा कि मनाली मत जइयो गोरी, राजा के राज में’. शायद उन्होंने कोई चुटीले व्यंग कसा हो, क्योंकि दूसरी कविता में वे लिखते हैं – ‘दोनों हाथ पसार,बुलाती तुम्हें मनाली’. 

आगे-पीछे नज़र दौडाई तो ज्यादातर सहयात्रियों को सोते पाया, बस की स्लीपर-सीट फैलाकर हमने भी खर्राटे भरने शुरु कर दिये. अचेतन-अवस्था में लगा, हम किसी लम्बी खोह से गुजर रहे थे, घुप्प अँधेरा था. हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था. दूर, दूसरी-ओर हल्का सा उजाला दिखाई दे रहा था. एक उम्मीद के साथ हमने तेज-तेज कदम बढ़ाये. अचानक पत्थरों की वारिस होने लगी. रास्ता एकदम बंद हो गया. घबराहट में हमारी श्वान-निद्रा भग्न हो गयी. खिड़की से झांककर देखा तो सचमुच किसी सुरंग से निकल रहे थे. मोबाईल में जी.पी.एस.आन किया तो मालूम पड़ा, एन.एच.21 (चंडीगढ़-मनाली मार्ग) पर थालोट (मंडीस्थित 3 किलोमीटर लम्बी सुरंग है, जिससे निकलते ही कुल्लू की सीमा प्रारंभ हो गई.

शीतल और सुगन्धित हवा के अहसास से नींद लगभग गायब हो चुकी थी. बस अब पौं फटने की प्रतीक्षा थी. सूरज की पहली किरण पड़ते ही पहाड़ और रास्ते के साथ ठुमठुमाती व्यास नदी दिखने लगी. कुदरत के खूबसूरत नज़ारे हमें रोमांचित कर रहे थे. मन किसी कवि की सी कल्पना करने लगा काश! ईश्वर ने हमें भी जड़ में जीवन का संचार करता कोई माध्यम बनाया होताकोई सदाबहार वन अथवा कोई सजीला निर्झर या सन्यस्त देवदार का पेड़ और यदि, ‘मानुष हौं तो वही रसखानि, बसौं’.

चित्त में उभरती चित्रावलियों का अवलोकन करते एवम् कल्पनाओं में गोते लगाते कब कुल्लू गया? पता ही नहीं चला. कैशलेस कुल्लूऔर कचरा नहीं प्यार फैलाएं जैसे होर्डिंग्स से पटा कुल्लू. यहाँ एक हवाई-अड्डा भी है, जहाँ से मनाली मात्र 40 किलोमीटर दूर रही. सुरम्य पर्वतीय वादियों में अवस्थित पर्यटकों का स्वर्ग. मनाली को मनु का आलय भी कहते हैं. किंवदंती है, कि महाप्रलय के बाद मनु ने सृष्टि की संरचना यहीं से प्रारंभ की थी. वैसे पूरी दुनिया में मनाली ही वह जगह है, जहाँ मनु का मंदिर है.
Manali
हम मनाली में होटल सनपार्क में ठहरे, प्री-इन्टरनेट बुकिंग के कारण हम फालतू की भाग-दौड़ से बच गए. होटल के ट्रेवल-गाइड का सहयोग लेकर हमने टेक्सी, टूरिस्ट-पॉइंट,रूट-चार्ट इत्यादि तय किये.

मनाली-दर्शन की शुरुआत सोलांग-वैली से की. मनाली से 13 किलोमीटर दूरी पर स्थित यह स्थान 300 मीटर की स्की-लिफ्ट के लिए प्रसिद्ध है. 6 से 7 मीटर मोटी बर्फ पर घूमने के लिए किराये के डांगरी और गमबूट लेना पड़े. 650 रूपये की टिकिट लेकर व्यू-पॉइंट तक पहुंचे, जहाँ से पूरे मनाली की भूमि, ग्लेशियर और पर्वतों का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है. फाहे जैसी बर्फ पर फुदकते देशी-विदेशी सैलानियों की अच्छी-खासी भीड़ थी. उम्र, रंग, लिंग की सीमाओं का अतिक्रमण करता हर-कोई प्रकृति के और - नजदीक आने का प्रयास कर रहा था. पैराग्लाइडिंग और स्कीइंग का मजा लेते युगल और उनकी निकलती रोमांचक चीखें वातावरण को रंगीन बना रहीं थीं. हम भी उनमें शामिल हो गए. ऐसे में गुलमर्ग के स्लेज-वाहक की सीख अवश्य याद आई - साहब! यहाँ का आदमी नहीं बर्फ चोर है,अपना पर्स, मोबाईल, जेवरात संभाल कर रखियेगा”. लगभग दो घंटे घूमने के बाद जब थककर चूर हो गए तो वहां स्थित रेस्टारेंट में नाश्ता और चाय ली तथा वापिस नीचे उतर आये. 

Solang Valley
मीना (पत्नी) और वर्षा (पुत्रवधू) ने किराये से मिल रहे परम्परागत - परिधान पट्टू (शाल से मोटा रंगीन कपडा, जो अपने कपड़ों के ऊपर लपेटा और बुमनि से कसा जाता है), थिपू (सिर पर बांधने का कपडा)और हमेल पहिने. ऋषि, अबीर और मैंने चोला, डोरा, कुल्लू-केप पहिनी तथा विभिन्न मुद्राओं में फोटो खिचवाये. शाम मॉल-रोड पर बिताई, जहाँ – 

चमक-दमक वाली दुकानों के अहाते में,
देशी-विदेशी सैलानी --
टोपी,शाल स्वेटर,जुराबें खरीदते,
केसरिया दूध पीते
पानी-पूरी खाते
रसगुल्लियों का लुफ्त उठाते
ज्यादातर हनीमून-कपल्स
अल्हड,जवान,एक-दूसरे में समा जाने को आतुर.
तन्हा, शांत और शीतल वातावरण में
जीवन के बेशकीमती पल
संग-संग बिताते
वो पल,जो कभी लौटकर नहीं आयेंगे.

मनाली-चौक पर स्थानीय प्रशासन की हिदायतें यथा - मनाली को स्वच्छ रखें’, ‘भिखारियों को भीख दें’, ‘फुटपाथ पर बिकती नकली सामग्री ना खरीदें’, ‘झोला-छाप डाक्टरों से बचें’—पढने के बाबजूद आम-आदमी अपनों से ही लुटता-पिटता रहता है. मॉल-रोड पर चुटर-पुटर खाकर जीरो की ओर लुडकते पारे की जकडन को महसूस कर हम लोग होटल लौट आये.

दूसरे दिन सुबह,
जब चहचहाई गौरेया,
और कांव-कांव सुनाई दी कौओं की,
प्राची ने दरवाजा खोला,
खिड़की से झांककर,अलसाये सूरज ने अंगड़ाई ली,
हिमगिरी पर बिछी धवल-चादर कुछ लालिमा लेने लगी.
दूर मंदिर में बजने लगीं घंटियाँ,
कतारबध्द देवदार,
स्वस्ति वाचन करने लगे,
जड़-जीवन में चेतना जगी,
दिन गतिमान हो गया.

मनाली से मणिकरण बारास्ता कुल्लू हमने व्यास नदी के किनारे - किनारे यात्रा की. टेक्सी-ड्रायवर ने बताया कि पैराग्लाईडिंग और स्कीइंग के बाद यदि, कुल्लू-मनाली ट्रिप में रिवर-राफ्टिंग नहीं की तो यह अधूरापन अखरेगा.व्यास का स्वच्छ-निर्मल जल, अपेक्षाकृत तेज बहाव युवा-सैलानियों को डेयर-डेविल्स के लिए उकसाता है. हमारी तो उम्र नहीं रही – “मैं बपुरा बुडन डरा, सो रहा किनारे बैठ, परन्तु बच्चों ने उसका भरपूर आनंद उठाया. व्यास के साथ बहती नौकाओं को देख विशाखापट्नम में समुद्र की लहरों पर लाइफ - जैकेट पहिन कर दौड़ायी मोटरबोट की पुरा-स्मृतियाँ ताज़ी हो गयीं.

कुल्लू से मणिकर्ण (45 किलोमीटरकी यात्रा रोमांचकारी रही. पहाड़ी दर्रे से गुजरना, चारों तरफ बर्फ की मस्तूल चोटियाँ, हरे देवदार के पेड, समुद्र-सतह से 1760 मीटर की ऊंचाई पर पारवती नदी के किनारे उबलते पानी के चश्मे. पौराणिक सन्दर्भ बताते है, सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में आत्माहुति देकर राजा हिमाचल के यहाँ पार्वती के स्वरुप में पुनः जन्म लिया और कठोर तप कर भगवान शिव को प्रसन्न किया तथा उनसे विवाह किया. पति के साथ विहार करती पार्वती के कान का गुमा बाला यहाँ मिला, इसलिए यह जगह मणिकर्ण कहलाती है. वैष्णव और शैव दोनों मतालम्बियों का समादर करता मणिकर्ण, सिख-धर्म का पवित्र तीर्थ है. धर्म-प्रवर्तन करते गुरु-नानक जी यहाँ पंच-पियारों के साथ रुके थे. यहाँ एक विशाल गुरुद्वारा है, जहाँ अखंड भंडारा चलता रहता है.

रास्ते में मलाना मिला. मलाना गांजे और अफीम की तस्करी के लिए कुख्यात है, हशीश से बनी मलाना-क्रीमकी अन्तर्राष्टीय-बाजार में अच्छी मांग है. टेक्सी-ड्रायवर ने बताया कि मलाना निवासी आम-कुल्लुवासियों से अलग एक कबीलाई जिंदगी जीते हैं. लोग इन्हें आर्य-संस्कृति के प्रतीक एवम् सिकंदर-महानकी सेना के अवशेष मानते हैं”.

मनाली लौटते समय बहुरंगी परिधानों में उत्साही पहाड़ी लोग अपने देवता को सिर पर रखे जाते दिखे. हमारे वाहन-चालक ने बताया कि यही कुल्लू-दशहरे का फार्मेट है. यहाँ का दशहरा, देश के अन्य दशहरा-महोत्सवों से भिन्न है. इसमें सर्वप्रथम हिडिम्बा देवी पहाड़ से उतरकर आती हैं और राजमहल में स्थापित होती हैं, वे राज-परिवार की ही हैं. उनके आने के बाद राजपरिवार के सभी सदस्य, महल छोड़कर उत्सव-अवधि तक मैदान में रहते हैं. फिर आती है,रघुनाथजी की सवारी. उनके बाद, एक-एक कर कुल्लू के सभी देवता अपनी-अपनी सवारियों के साथ आते हैं और सप्त-दिवसीय दशहरा शुरू हो जाता है”.

आखिरी दिन, हम मनाली से 3 किलोमीटर दूर 1962 मीटर ऊंचाई पर स्थित वशिष्ठ-ग्राम गये, जहाँ मुनि वशिष्ठ का मंदिर है. ऋषि-परम्परा के अनुसार वशिष्ठहमारा गोत्र है, अतः गुरू-गिरी पर पहुँचकर हमने अपना इहलौकिक जीवन धन्य माना. कहते हैं, श्री राम के राज्याभिषेक के बाद वशिष्ठजी इस स्थान पर तप हेतु गये, अश्वमेघ-यज्ञ के आयोजन पर लक्ष्मण जी उन्हें लेने आये. लोगों का कहना है कि मंदिर परिसर में ठन्डे पानी का झरना था, गुरुदेव को स्नान करने में दिक्कत हो इसलिए गर्म पानी का झरना लक्ष्मण जी ने बनाया था, इसमें चर्म रोग दूर करने की गजब की शक्ति है. वशिष्ठ-मंदिर के ठीक सामने राम-लक्ष्मण का मंदिर है. मंदिर से निकलते ही चिंगू शाल-विक्रेताओं ने पकड़ लिया. वह तो अच्छा रहा की अबीर ने इन्टरनेट खोलकर ऐसे गिरोह का भंडाफोड़ करता समाचार हमें पढ़ा दिया, जिसमें चिंगू नामक कोई प्राणी नहीं होता और ऐसे शाल खरीद कर आप बेवकूफ बन रहे हैं, स्पष्ट किया गया था. हम लोगों ने धैर्य से उनकी लोक-लुभावन योजना सुनी और बाल-बाल बच निकले.

यात्रा के अंतिम पड़ाव में हम हिडिम्बा देवी के मंदिर गए. मिथकीय मान्यता है, वनवास के समय पांडव यहाँ रहे और भीम ने हिडिम्बा से विवाह किया. दानवी से देवी बनी हिडिम्बा के दर्शन कर हमने उन्हें प्रणाम कर क्षमा मांगी, क्योंकि वे उस क्षेत्र की प्रथम-पूज्या हैं - और हम यहाँ सबसे अंत में आये. चार मंजिला, पैगोडानुमा लकड़ी का बना मंदिर अपने अनूठे आर्किटेक्ट और बाह्य परिक्रमा में उकेरी सुन्दर कलाकृतियों के लिए जाना जाता है. इसका निर्माण 1533 में यहाँ के राजा बहादुर सिंह ने कराया था. इसके सदृश्य कोई दूसरी संरचना बने इसलिए उसके प्रधान कारीगरों के सीधे हाथ कटवा दिए गए थे. समीप ही घटोत्कच का मंदिर है और शरगोशियाँ करता डूंगरी वन, जहाँ अनेक फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है. यह जगह, हनीमून-कपल्स की पहली-पसंद होती है, यहाँ प्रकृति अपने समूचे वैभव के साथ विद्धमान है. मंदिर से लौटते समय याक की सवारी की, क्लब-हॉउस में लंच किया. 3:45 बजे हमारी बस रही सो बस-अड्डे पर गए. मनाली को इस तरह छोड़ना अच्छा नहीं लग रहा था. हम सभी मौन थे, मानो बेटी को पहली बार बिदा कर रहे हों. मीना ने चुप्पी तोड़ी और पूछा – ‘कैसी लगी मनाली?’ अंतस में सहेजी अनुभूतियों को मानो पंख लग गये-

हिमालय पर
दूर तक पसरी चांदी सी चमकती बर्फ को
देर तक ताकना अच्छा लगा.
अच्छे लगे देवदार के सुव्यवस्थित वन
हिमाच्छादित पर्वत श्रंखलायें
उन पर पड़ती सूरज की कुनकुनी धूप
बनती वाष्प और उमड़ते बादलों का बहुरूपियापन
कभी अक्षरधाम की गजाकृतियाँ
कभी मां मरियम निर्मल छाया
कभी खरगोश के पीछे घिसटता कछुआ.
काश! ये बादल नीचे और नीचे जाते.

यही ललक रही कि काश! ये बादल नीचे जाते. मनाली में बर्फवारी हो जाती. लेकिन यह जरूरी तो नहीं कि मुंह मांगी मुराद पूरी हो. वैसे, इस यात्रा में दवा की जरुरत पड़ी और दुआ की. हम लोग ख़ुशी-ख़ुशी जबलपुर गए, बच्चों को तो दिल्ली से ही मुम्बई लौटना रहा.

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